राजेश शर्मा 


विधानसभा चुनाव को लेकर विभिन्न चेनलों के एग्जिट पोल ने कोई खास प्रदर्शन नहीं किया। ज्यादातर चेंनल इसकी भी जय-जय उसकी भी जय-जय के अंदाज़ मे पेश आए यानि खोदा पहाड़ निकली चुहिया। हो सकता है कि 11 दिसंबर को एग्जिट पोल से दर्शकों का विश्वास ही उठ जाए। ज्यादातर चैनलों की एजेंसियां अपने प्रस्तुत आंकड़े मे कांग्रेस भाजपा के बीच कांटे की टक्कर बता रही हैं। इसमे कांग्रेस को मामूली सीट से बड़त बताई जा रही है जबकि लोकतंत्र के इतिहास मे बहुत कम आंकड़े कांटे की टक्कर से गुजरे हैं। मतदाता कभी भी आपस मे सलाह करके पोलिंग बूथ नहीं  जाता कि मैं भाजपा को वोट दे लूंगा तू कांग्रेस को दे लेना . . .

मतदाता अपना वोट या तो सिस्टम के पक्ष मे देता है या सिस्टम के विरोध मे वोटिंग करता है उसी से सरकारें बनती और पलटती हैं। सन् 1977 के चुनाव परिणाम गवाह हैं कि मतदाता ने इमरजेंसी के खिलाफ वोट दिया था जिसमें इंदिरा गाँधी को राजनारायण जैसे नेता से पराजित होना पड़ा था या फिर दो तिहाई वाली जनता पार्टी ने तीन वर्ष के कार्यकाल मे देश का ऐसा क्या बिगाड़ दिया था कि उसे जनता ने सन् 1980 मे फिर पटिए पर ला दिया था।
मप्र विधानसभा चुनाव मे भी इस बार सिस्टम को देख मतदान हुआ है चाहे वह कांग्रेस के पक्ष मे या भाजपा के पक्ष मे रहा हो। कांटे की टक्कर नकारते हुए राजनीति के विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार अच्छे खासे स्पष्ट बहुमत से ही बनेगी चाहे वह किसी भी दल की हो। एग्जिट पोल से यह स्पष्ट जरुर होता है कि कांग्रेस ही वह पार्टी रहेगी जिसे अच्छा  खासा बहुमत मिलने के चान्स दिखाई दे रहे है। भाजपा के हाथ से सत्ता खिसक रही है।
सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि भाजपा सरकार बनी तो वह भी स्पष्ट बहुमत से ही काबिज होगी।
कुल मिलाकर दोनों दल मे से किसी एक के सीटों का आंकड़ा तीन अंकों को भी नहीं छू पाएगा। एग्जिट पोल ने लोगों को भ्रम से निकालने के बजाए उन्हें असमंजस मे डालने का काम ज्यादा किया है।
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