गुम हो गया दुनियाँ  की रेलम्पैल मे रावण का नुक्ता,
प्रायः विलुप्त होती जा रही छल्का बोला की प्रथा . .
इछावर एमपी
मध्यप्रदेश के मालवा अंचल मे दशहरे पर रावण दहन के बाद रोज रात को छल्ला-बोला गाने की आवाज सुनाई देती थी मोहल्ले के बच्चों की टोलियाँ तब तक घर के सामने छल्ला-बोला गाते रहते थीं जबतक कि उन्हें घर से अनाज नहीं मिल जाए बड़े चाव से यह अनाज एकत्रित कर उसकी रसोई बनाकर पूर्णिमा के दूसरे दिन रावण का नुक्ता किया करते थे लेकिन भागम्भाग की जिंदगी और कथित हाईटेक होते जा रहे गांवों की वजह से यह परंपरा अब वेंटिलेटर पर पहुंच गई है। 


एक समय था जब ग्रामीण अंचलो में रावण दहन के पश्चात दशहरे की रात से पूर्णिमा तक गांवो में समूह बनाकर छल्ला बोला गाया जाता था समूह में पांच से दस किशोर अवस्था के बच्चे हुआ करते थे वह हर घर छल्ला बोला गाकर अनाज इक्क्ठा करते थे और जो भी पांच दिनों में अनाज इक्कठा होता था उससे पूर्णिमा के एक दिन बाद पूजा अर्चना करके रावण का नुक्ता किया करते थे अब मालवा क्षेत्र के ग्रामीण अंचलों में यह प्रथा पूर्ण रूप से बंद जैसी हो गई है प्रथा बन्द होने का मुख्य कारण है कि आज ग्रामीण अंचलों में टीवी,मोबाइल सहित मनोरंजन के अनेक साधन हो गए है। और बच्चे उसमे उलझकर रह गए है---यहाँ के बुजुर्गों को अब भी छल्ला-बोला मुखाग्र रटा हुआ है बात निकलते ही वे कहते हैं   बैंडी गाय सौ-सौ पूले रोज खाए _एक पूले मे से निकली कोड़ी , कोड़ी ले बनिया को दी __बनिया ने तो लोन दिया _लोन ले गागा को दिया . .गागा ने तो खीर पकाई  बुरी-बुरी बुगले को दी--अच्छी अच्छी हमने खाई,

राजाजी का घोड़ा अली कुदाया बली कुदाया भूख लगी तो बेच खाया
कि छल्ला बोला रे . . .
मुख्य रूप से ग्रामीण अंचलो में यही छल्ला बोला  गाया जाता था कि---मेरा ठेसू यही अड़ा खाने को मांगें दही बड़ा दही बड़ा से पूछी बात---
यह पुरुष लोग गाते थे,,,महिलाये गाती थीं

नन्ना नी घुघरी घड़िय दीजो बीर सासरया में पहनेगा,आदि, मगर आज ग्रामीण अंचलों से ये आवाजें ओर ये परम्परा लगभग बन्द हो गई है। और दुनियाँ के इस झमेले मे छल्ला-बोला के साँथ गुम हो गया रावण का नुक्ता भी।
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