नीना गुप्ता इंडियन सिनेमा की बेहद टैलेंटेड, एवरग्रीन एक्ट्रेस में से एक मानी जाती हैं. दिवा ने 1982 में डेब्यू किया था और उसके बाद, उन्होंने अपने करियर में खूब काम किया. 64 साल की उम्र में भी, वह सिल्वर स्क्रीन पर राज कर रही हैं. नीना ने ‘बधाई हो’, ‘ऊंचाई’, ‘सरदार का ग्रैंडसन’, ‘गुडबाय’, ‘लस्ट स्टोरीज़ 2’ सहित कई फिल्मों में अलग-अलग किरदार निभाकर खूब वाहवाही लूटी है. फिलहाल एक्ट्रेस वेब सीरीज 'पंचायत 3' को लेकर सुर्खियों में हैं. इस सीरीज में वे एक बार फिर ग्राम प्रधान मंजू देवी के रोल में नजर आएंगीं. 

वहीं पर्सनल लाइफ की बात करें तो एक्ट्रेस ने दिल्ली बेस्ड अकाउंटेंट विवेक मेहरा से शादी की है. नीना की इकलौती बेटी मसाबा गुप्ता देश की फेमस फैशन डिजाइनर हैं. इन सबके बीच एक इंटरव्यू में नीना गुप्ता ने खुलासा किया कि उन्होंने पैसों के लिए कई गलत काम किए हैं.

पैसों की खातिर करने पड़े गंदे रोल

शोशा को दिए एक इंटरव्यू में, नीना गुप्ता ने खुलासा किया कि अपने करियर की शुरुआत में सिर्फ पैसे की जरूरत के चलते उन्हें गंदे रोल करने पड़े थे.  नीना ने कहा,“ जरूरत के हिसाब से यह बदल गया है. पहले जरूरत थी पैसे की ज्यादा तो पैसे के लिए बहुत बुरे काम करने पड़ते थे. काई बार मैं भगवान से प्रार्थना करती थी कि ये पिक्चर रिलीज़ ही ना हो.”

अब बुरे काम के ऑफर को आसानी से ठुकरा देती हैं

नीना गुप्ता ने आगे खुलासा किया कि कैसे समय में बदलाव और अपने करियर में ऊंचाइयां चढ़ने के साथ, वह अब अपनी इच्छा के प्रोजेक्ट को एनालाइज और रिजेक्ट कर सकती हैं. कुछ ऐसा जिसके बारे में वह उस समय सोचने की हिम्मत भी नहीं कर सकती थीं. वह कहती हैं, “अब मैं ना कह सकती हूं, पहले कभी ना नहीं कह सकती थी. जो स्क्रिप्ट मुझे बहुत अच्छी लगती है, रोल बहुत अच्छा लगता है वो करती हूं जो नहीं अच्छा लगती वो नहीं करती हूं.”

शुरू में हर तीन महीने में दिल्ली लौट जाना चाहती थीं

फिल्म इंडस्ट्री में अपने शुरुआती सालों के संघर्ष को याद करते हुए, नीना गुप्ता ने शहरों और आदतों में भारी बदलाव के बारे में भी बात की, जिसे उन्हें सहना पड़ा. चूंकि वह दिल्ली से थीं, इसलिए नए शहर, बंबई में तालमेल बिठाना उनके लिए मुश्किल था. उन्होंने कहा, “

“मैं तो वैसे भी दिल्ली से आई थी ना तो बॉम्बे वैसे भी मुश्किल शहर है शुरू शुरू में. मुझे लगता है कि हर तीन महीने में मैं सामान पैक करके वापस जाना चाहती थी. मैं एजुकेटेड थी. मैंने कहा, 'मैं जाऊंगी और अपनी पीएचडी करूंगी. मैं इसे संभाल नहीं सकती. लेकिन बॉम्बे ऐसा शहर है, मैंने सोचा चल कल जा रही हूं तो आज रात को लगेगा कि कल कोई काम मिल जाएगा. रोक के रखता है.”

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